राजा की रानी
एक तरफ यह अद्भुत काण्ड हो रहा था और मैं मुँह बाए देख रहा था कि एकाएक देखा- पास में ही खड़ा हुआ एक व्यक्ति प्राणपण से हाथ हिला-हिलाकर मेरी नजर अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश कर रहा है। बहुत कष्ट से अनेक लोगों की लाल-लाल ऑंखें सिर पर रखकर मैं उस मनुष्य के पास जा उपस्थित हुआ। उसने ब्राह्मण समझकर मुझे हाथ जोड़कर नमस्कार किया और अपना परिचय दिया कि मैं रंगून का विख्यात नन्द मिस्री हूँ। पास ही एक विगत-यौवना स्थूल स्त्री बैठी हुई एकटक मेरी ओर देख रही थी। मैं उसके मुँह की ओर देखकर स्तम्भित हो गया। मनुष्य की इतनी बड़ी-बड़ी फुटबाल-सी ऑंखें और इतनी मोटी जुड़ी हुई भौहें पहले कभी न देखी थीं।
नन्द मिस्री उसका परिचय देते हुए बोला, “बाबूजी, यह मेरी घरवा...”
बात पूरी भी न हो पाई थी कि वह फुँकार कर गर्ज उठी, “घरवाली! ये मेरे सात भाँवरों के स्वामी कहते हैं घरवाली! खबरदार, कहे देती हूँ मिस्री, जिस-तिस के आगे झूठ बोलकर मुझे बदनाम मत किया करो! हाँ...!”
मैं तो विस्मय के मारे हतबुद्धि-सा हो गया।
नन्द मिस्री कुछ अप्रतिभ-सा होकर बोला, “आहा, नाराज क्यों होती हो टगर? घरवाली और कहते किसे हैं? बीस साल...”
टगर विकट क्रोध से बोल उठी, “बीस साल हो गये क्या हुआ। फूटे करम! जात-वैष्णव की लड़की होकर मैं कहलाऊँ केवट की घरवाली! कैसे, किस तरह? बीस बरस से तुम्हारे घर हूँ जरूर, किन्तु एक दिन भी तुम्हें चौके में घुसने दिया है, यह बात कोई भी नहीं कह सकता। टगर वैष्णवी मर जायेगी, पर अपनी जाति नहीं खोएगी, जानते हो?” इतना कहकर वह जात-वैष्णव की लड़की अपनी जाति के गर्व से मेरे मुँह की ओर देखती हुई अपनी दोनों फुटबाल की सी ऑंखें घुमाने लगी।
नन्द मिस्री लज्जित होकर बारम्बार कहने लगा, “देखा बाबूजी, देखा? अभी तक इसे जाति का गर्व है! देखा आपने! मैं हूँ, इसी से सह लेता हूँ, और कोई होता...” बीस बरस की उस घरवाली की ओर देखकर बेचारा अपनी बात पूरी भी न कर सका।
मैं और कुछ न बोला और उससे एक गिलास लेकर वहाँ से चल दिया। ऊपर पहुँचकर उस वैष्णवी की बातें याद करके मेरी हँसी रोकी न रुकी। किन्तु क्षण-भर बाद ही सोचा, यह तो एक सामान्य अशिक्षिता स्त्री ठहरी; पर, गाँवों में और शहरों में भी क्या ऐसे अनेक शिक्षित पुरुष नहीं हैं, जिनके द्वारा ऐसे ही हास्यकार्य अब भी प्रतिदिन हुआ करते हैं, और जो पाप के सारे अन्यायों से केवल खाना-छूना बचाकर ही परित्राण पा लेते हैं। तब, यह हो सकता है कि इस देश के पुरुषों का हाल देखकर तो हँसी नहीं आती, आती है सिर्फ औरतों को देखकर।
आज शाम से ही आकाश में थोड़े बादल जमा हो रहे थे। रात को एक बजे के बाद मामूली-सा पानी और हवा भी चली जिससे कुछ देर के लिए जहाज खूब हिला-डुला। दूसरे दिन सुबह से ही वह शिष्ट शान्त भाव से चलने लगा। जिसे समुद्री बीमारी कहते हैं, मेरा वह उपसर्ग तो शायद छुटपन में ही नाव के ऊपर कट गया था, इसलिए वमन करने के संकट को मैं एकबारगी ही पार कर गया; किन्तु, सपरिवार नन्द मिस्री का क्या हाल हुआ- किस तरह रात कटी, यह जानने के लिए मैं नीचे जा पहुँचा। कल के गायकों में अधिकांश उस समय तक भी औंधे पड़े हुए थे। मैंने समझ लिया कि रात्रि के उत्पात के कारण ही ये लोग अभी तक महासंगीत के लिए तैयार नहीं हो सके हैं। नन्द मिस्री और उसकी बीस बरस की घरवाली दोनों गम्भीर भाव से बैठे हुए थे। मुझे देख उन्होंने प्रणाम किया। उनके चेहरे के भाव से जान पड़ा कि कुछ देर पहले ही दोनों में कुछ कलह-सी जरूर हो चुकी है। मैंने पूछा, “रात को कैसा हाल रहा मिस्रीजी?”
नन्द बोला, “अच्छा रहा।”
उसकी घरवाली गरज उठी, “खाक रहा अच्छा! मैयारी मैया, कैसा अद्भुत काण्ड हो गया।”
कुछ उद्विग्न होकर मैंने पूछा, “कैसा काण्ड?”
नन्द मिस्री ने मेरे मुँह की ओर देखा, फिर जम्हाई ली। चुटकियाँ बजाईं और अन्त में कहा, “काण्ड ऐसा कुछ नहीं था बाबूजी। कलकत्ते की गलियों के मोड़ों पर साढ़े बत्तीस तरह का चबेना बेचते हुए आपने किसी को देखा है? यदि देखा हो तो हम लोगों की अवस्था को आप ठीक तौर से समझ सकेंगे। वह जिस तरह अंगूठे के नीचे दो-तीन अंगुलियों की चोट मारकर भुने हुए चावल, दाल, मटर, मसूर, चने, सेम के बीज आदि सबको एकाकार कर देता है, देवता की कृपा से हम सब भी ठीक उसी तरह गड्डमड्ड हो गये थे, अभी ही कुछ देर हुई सब कोई अपने-अपने कपड़े पहिचानकर फिर अपनी जगह आकर बैठे हैं।” इसके बाद वह टगर की ओर देखकर बोला, “बाबूजी, भाग्य से असल वैष्णव की जात नहीं जाती, नहीं तो मेरी टगर...”
टगर भड़के हुए भालू की तरह गरज उठी, “अब फिर वही!”
“नहीं, तो जाने दो”, कहकर नन्द उदासीनता से दूसरी तरफ को देखता हुआ चुप हो गया।
एक काबुली दम्पति, जो कि मलिनता के अवतार थे, सिर से पैर तक पृथ्वी की सारी गन्दगी लादे हुए अत्यन्त तृप्ति के साथ रोटी खा रहे थे। क्रुद्ध टगर उन हतभागों के प्रति अपने बड़े-बड़े चक्षुओं से एकंटक होकर अग्नि वर्षण करने लगी। नन्द ने अपनी घरवाली को उद्देश्य करके प्रश्न किया, “तो फिर आज खाना-पीना कुछ न होगा, क्यों?”
घरवाली ने कहा, “मौत और किसे कहते हैं? होगा कैसे, सुनूँ तो?”
मामला न समझ सकने के कारण मैंने कहा, “अभी तो बड़ी सकार है, कुछ बेला चढ़ जाने पर...”
नन्द मेरे मुँह की ओर देखकर बोला, “कलकत्ते से एक हाँड़ी में बढ़िया रसगुल्ले लाया था बाबूजी, जहाज पर सवार होने तक कहता रहा, “आओ टगर, कुछ खा लेवें, आत्मा को कष्ट न दें”, परन्तु नहीं- “मैं रंगून ले जाऊँगी।” (टगर के प्रति) ले, अब ले जा रंगून, क्या ले जाती है?”